जुवति-अंग छवि निरखत स्याम।
नंद कुँवर श्री अंग माधुरी, अवलोकति ब्रज-बाम।
परी दृष्टि उच कुचनि पिया की, वह सुख कह्यौ न जाइ।
अँगिया नील, माँड़नी राती, निरखत नैन चुराइ।
वै निरखतिं पिय-उर-भुज की छबि पहुँचनि पहुँची भ्राजति।
कर-पल्लवनि मुद्रिका सोहति, ता छबि पर मन लाजति।
चंदन-बिंदु निरखि हरि रीझे, ससि पर बाल-बिभास।
नंदलाल-ब्रजबाल-सु छबि क्यौं, बरनै सूरजदास।।